सम्राट अशोक जब तक अपनी अथाह धन-सम्पत्ति व

सैन्य बल को आधार बनाकर कर्म करता रहा, उसका
परिणाम विधवाओं की चीत्कार, लाशों के ढेर एवं
वीभत्स रक्तपात के रूप में सामने आता रहा| किन्तु
ज्यों ही उसने एक सन्त के करुणाहस्त को प्रापत
किया, ज्ञान की कुंजी ने उसके ह्रदय-कपाटों को खोल
दिया| उसके भीतर आदिनाम का प्रकटीकरण हुआ
और 'चंड अशोक' से 'बोद्ध अशोक' बन गया| शक्ति,
साहस व साधन तो व्ही रहे, पर प्रभु सुमिरन ने उनके
प्रयोग की दिशा बदल दी| अब यही अशोक 'सर्वभूता
हिते' - स्वयं के साथ-साथ सर्वभूत प्राणियों के उत्थान
के लिए भी कार्यरत हो गया| इसलिए कहा गया कि
'योग: कर्मसु कोशलमू' अर्थात योग ( आदिनाम से जुड़ना )
से ही कर्मों में कुशलता आती है, क्योंकि इस अवस्था में
किया गया कर्म शारीरिक, मानसिक एवं बोद्धिक स्तर से
कहीं ऊँचा उठकर आत्मिक प्रकाश से प्रकाशित होता है|

सैन्य बल को आधार बनाकर कर्म करता रहा, उसका
परिणाम विधवाओं की चीत्कार, लाशों के ढेर एवं
वीभत्स रक्तपात के रूप में सामने आता रहा| किन्तु
ज्यों ही उसने एक सन्त के करुणाहस्त को प्रापत
किया, ज्ञान की कुंजी ने उसके ह्रदय-कपाटों को खोल
दिया| उसके भीतर आदिनाम का प्रकटीकरण हुआ
और 'चंड अशोक' से 'बोद्ध अशोक' बन गया| शक्ति,
साहस व साधन तो व्ही रहे, पर प्रभु सुमिरन ने उनके
प्रयोग की दिशा बदल दी| अब यही अशोक 'सर्वभूता
हिते' - स्वयं के साथ-साथ सर्वभूत प्राणियों के उत्थान
के लिए भी कार्यरत हो गया| इसलिए कहा गया कि
'योग: कर्मसु कोशलमू' अर्थात योग ( आदिनाम से जुड़ना )
से ही कर्मों में कुशलता आती है, क्योंकि इस अवस्था में
किया गया कर्म शारीरिक, मानसिक एवं बोद्धिक स्तर से
कहीं ऊँचा उठकर आत्मिक प्रकाश से प्रकाशित होता है|
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